Thursday, November 28, 2013

झंझोड़ स्व्यं को हे मानव

झंझोड़ स्व्यं को हे मानव,
कुपित भ्रान्तियो के तारे है,
अंत्येष्टी की इस नगरी में,
जीवित रावण अब सारे है,
कहते है तन से "राम राम",
मन की गंगा तो मैली है,
सत्संगी ढोंग अविकारी है,
मृत चित्त की आशा फैली है,
एक अनजाने अभिशाप से,
जीवन गाथा लिख डाली है,
सूरज के तपते ताप से,
खूनी आंधी तूने पाली है,
कृत्य तेरे सब अंतहीन,
कांटें बोए सब ये दानव,
इस शृष्टि का है अंत निकट,

Monday, November 18, 2013

किस्सा हूँ



रंगो कि धाराओं में बहता,
एक रंगहीन पत्ता सा हूँ,
विपरीत व्यवहारों को संजोये,
एक हृदय विहीन सत्ता सा हूँ,

नाशहीन रूह को बांधे,
एक विचारहीन शरीर हूँ,
संतोष कि कामना संजोये
एक स्वाभिमानी अधीर हूँ,

बरखा में हरसूँ भीगता,
एक बंजर जमीन का टुकड़ा हूँ,
हवाओं के संग लहराता,
सूरज का जलता सा मुखड़ा हूँ,

कहते है सब बार-बार,
असंतुष्टि का हिस्सा हूँ,
संतुष्ट हूँ इससे ही मैं ,
आखिर कोई तो किस्सा हूँ.

Sunday, November 10, 2013

When I loved again…..

Purity is so impure now,
Yet thy thwarted body needs love,
Arid Soul died century ago,
Cover soaring in lusty earth as dove,

Repeats identical tone,
Pity Thee thoughts, un-trusted & un-colored,
Edgy tears misunderstands truth,
Naked thy body, un-quenched & un-covered,

Stubborn mind rapes chaste heart,
Uncontrolled urge drowns self respect,
Other side ventures green grass,
Deserted mouth hypnotized to such aspect,

Haunting demonic past resurrects,
“Thy” strength succumbs at fear,
Undesirable action thumps thee,
Slowest of music is unclear,

Mistake is known and repeated,
Lust pretending love masked,
When self respect erased entirely,
What worse question could be asked?

Monday, November 4, 2013

बह जाने दे तू आज मुझे


बह जाने दे तू आज मुझे,
इस अनदेखे उफान में,
निर्ममता और निर्लजता के,
इस स्वाभाविक तूफ़ान में,
बह जाने दे इस धारा को,
उन देवो के इतिहास में,
जो धारा रक्त से सींची है,
अब सम्भावी है परिहास में,
वैरागी का त्रिशूल कहाँ,
इसे संभोगी में रंगना है ,
बह जाने दे इस तेज़ को,
जिसको अन्धकार से डरना है,

बह जाने दे तू आज मुझे,
इस जग में बस अब साँप है,
भक्ति में भी अब शक्ति कहाँ,
सत्य का पथ भी पाप है,
बह जाने दे तू आज मुझे,
जीवन का आरम्भ समाप्त है,
बह जाने दे तू आज मुझे।

दिवाकर पोखरियाल