Monday, May 30, 2016

साथ



इस शोर में भी, तेरी आवाज़ है,
झड़ती तन्हाइयों में भी साज़ है,

नाचती बारिश सी चंचल है वो,
यूँ निराला सा उसका, अंदाज़ है

ओंस की बूँदो सी है वो नाज़ुक,
हँसी उसकी, प्रेम का आगाज़ है,

बयान कर सके तुझको 'ए-इश्क़'
ऐसा ना बना, कोई अल्फ़ाज़ है

इश्क़ में भीगी है वो रूह 'साथी',
गले लगाकर, मुझसे नाराज़ है || DV ||

Monday, May 23, 2016

ख़ानाबदोश ज़िंदगी

ख़ानाबदोश है ज़िंदगी 
और आवारा इच्छाए,
रुकने की चाहत बड़ी,
कौन दिल को समझाए,

पास होने की खातिर,
अक्सर दूर चले जाते है,
तारो को तोड़कर वो,
घर खाली पाते है,

सूनी गलियो को,
उनका इंतज़ार होता है,
और उस बावले को,
कल से प्यार होता है,

आज को तोड़कर,
कल जोड़ने की बात करते है,
सूरज मध्यम हुआ जो,
दिन को रात करते है,

मीठी सी ज़िंदगी को,
ज़हर सा पीते है,
खुशियाँ आएगी कल,
यही सोच जीते है,

थक कर यहाँ अक्सर,
टूट जाते है धागे,
गुलाब की होड़ में,
तन्हाई पाते है अभागे,

यह खेल निराला, 
जाने किसने सिखलाया,
किनारो में बैठाकर,
संगम क्यूँ दिखलाया,

बस दौड़ में खोए है,
कौन गले से लगाए,
ख़ानाबदोश है ज़िंदगी 
और आवारा इच्छाए|


Sunday, May 22, 2016

संवेदना


वो बोला बहुत दिनो से रोया नही,
ज़िंदगी जगा बैठी मुझे सोया नही,

एक उम्र इंतज़ार में बिता दी मैने,
जो चलना न हुआ, मैं खोया नही,

दुनिया से सीख मिलती रही मुझे,
छींटे पड़ते रहे, दामन धोया नही

अपनो के ही चेहरों में थे नकाब,
ममता के आँचल ने भिगोया नही,

इस कदर हारा, जीवन से मैं 'साथी'


मोती मिला मुझे, पर पिरोया नही || Dr DV ||

Friday, May 20, 2016

न आया



उनका महल मेरे काम न आया,
दर्द होता रहा पर बाम न आया,

खुद से बना बैठे हमको मज़बूर,
पल भर उनको आराम न आया,
 
दूर की सोच तले दबे रहे नादां,
पास उनके कभी धाम न आया,

चिंता के सागर मे गोते रहे खाते,
जीने का उनको, कलाम न आया,

कैसे समझेंगे ज़िंदगी वो 'साथी',
           हाथो में जिनके, जाम न आया || DV ||   

Monday, May 2, 2016

पद-चिन्ह ढूंढता हूँ


पद-चिन्ह ढूंढता हूँ,
कभी घनघोर अंधेरो में,
तो कभी अंजान सवेरो में,
कभी चलते-चलते रेत में,
तो कभी मास्टर जी की बेंत में,
कभी भीगते से पल में,
कभी जलते से उस नल में,
पद-चिन्ह ढूंढता हूँ,

कभी पास थे सब,
सूरज, तारे और आकाश,
आज अपनो से ना रही आस,
ज़िंदगी की दौड़ में भयभीत,
चली रे चली, वही रीत,
ढूँढते फिरते है सब प्रीत,
पद-चिन्ह ढूंढता हूँ,

घुले तो रंग आँखो में,
मुस्कान से बिखर जाते थे,
अंधेरे में जब माँ-बाबा,
दिए से आ जाते थे,
आज भी वो आते है, पर,
बड़े होने का एहसास डुबाता है,
पद-चिन्ह ढूंढता हूँ,

माया की काया में भीगे पल,
ज़िम्मेदारियो की पत्तियाँ तोड़ते,
जिंदगी जीने की आस में,
इच्छाओ की धारा को मोड़ते,
तन्हाई को अब मज़बूरी कहते है,
सपने तो गाँव है, हम शहर में रहते है,
पद-चिन्ह ढूंढता हूँ,

मोड़ इतने आए है जीवन में,
की भूल कर भी अब वापसी नही,
दिल को बहलाते बहलाते,
फिरता रहता है मॅन मेरा, यही कही,
खुद को समझाते, शाम हो जाती है,
धूप मेरे द्वार आ, रूठकर चली जाती है,,
पद-चिन्ह ढूंढता हूँ,
पद-चिन्ह ढूंढता हूँ,
जो शायद अब जीवंत नही है,
विचार मेरे संग, सत्य कही है,
कल-कल बहता कल, आज है,
ग़लतियों का एहसास, राज़ है,
हिचकिचाहट का वृक्ष बड़ा है,
आत्मा का बोझ वैसा ही गड़ा है,
पद-चिन्ह ढूंढता हूँ, पद-चिन्ह ढूंढता हूँ || Dr DV ||