Monday, July 7, 2014

यातना

 
भड़क उठा था ज्वाला-मुखी,
यातनाओ का सिलसिला ज़ारी था जब,
हवाओ का तेज़ बहाव ना सहा गया,
नासूर बन चुका था एक नाज़ुक दिल ,
इल्ज़ामो की झड़ी इस कदर लगाई,
की दया की आशा भी धूमिल थी,
बेरेहम वक़्त था या वो जालिम,
रुकता ही नही था एक षण,
आख़िर कब तक सहती वो नदी,
उफान तो लाज़मी ही था,
धैर्य की सीमा भी कितनी हो आख़िर,
क्या जान से भी ज़्यादा महँगी?
क्या रिश्तो से भी ज़्यादा गहरी?
ना कर सकते हो जो प्रेम,
तो क्यू लगाते हो बेदर्द आग,
आज फिर से कोई इंसान टूटा,
जब मुड़कर देखा मैने,
भड़क उठा था ज्वालामुखी. 

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