अंधेरी सी उस नगरी में आज भी,
अंधेरो की ही साज़ है,
रोशनी से शायद वो दुनिया,
कुछ इस कदर नाराज़ है,
मुस्कुराहटें दम तोड़ रही है कही,
इंसानियत की यही मोल है,
आँसुओ की लड़ी जलती है अब,
दीवाली अपनी कुछ यू अनमोल है,
हवायें उड़ा ले जाती है सपने
कुछ कमज़ोर यू हमारी खुद्दारी है,
कहते है सीना ठोक के वो,
"बहुत मामूली सी आपकी गद्दारी है",
बस एक रास्ता ढूँढते है जीने का,
ज़िंदगी जीना भी अब एक जंग है,
जो रहता है भोला सा यहाँ,
वही आज सबसे ज़्यादा तंग है.
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