न मंज़िल का पता है,
न रास्ते की खबर है,
अंजान हूँ खुद से मैं,
अंजान हर डगर है,
क्या पाना है मुझको,
या क्या खोना है,
न जानू कि हँसना है,
या फिर रोना है,
एक मुसाफिर के जैसे,
बस चलता जा रहा हूँ,
तारों की रोशनी तले,
बस पलता जा रहा हूँ,
कोई कहता है पगला,
कोई बेबस सा कहता है,
कोई सोचता है देख, मुझे
दुनिया मे ये भी रहता है?
कैसे कोई इस जीवन को,
एक पल भी नही जीता,
पूछता हूँ खुद से मैं,
किस सोच का है नतीजा,
बंद एहसासो की ज़िंदगी,
आजकल आम सी हो गयी,
जाग उठा है लालच,
इंसानियत बदनाम सी हो गयी,
और मैं गुमसुम सा हूँ,
सागर किनारे को निहारता,
शांत हूँ लहरो सा पर,
अंतर्मन से, खुद को संवारता,
इसी द्वंद के बीच हूँ मैं,
न जानू भविष्य की काया,
चलता चला हूँ मैं बस,
शायद यही हो उसकी माया ||
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