Monday, October 24, 2016

बेड़ियाँ


उम्र के संग संग,
अड़ियल हो जाते है हम,
कल को पकड़कर,
कल तक ले जाते है हम,

बाँध देते है एहसास की नाव,
आँसुओं के समुंद्र तट पर,
बीत जाती है खुशियाँ,
तड़पते मन, झड़पते हट पर,

खुद को ही अंधेरे में,
झोंक देते है हम सब,
खटखटाए जो मुस्कान, 
लगते है पल, कम तब,

बढ़ती उम्र के साथ,
बढ़ती जाती है उलझने,
न ढूँढ पाते है कोई दवा,
न दिख पाती है सुलझने, 

इन्सा की फ़ितरत देखो,
हैरत कर देती है,
गम का डर सताता है, उससे,
खुशियाँ जो देती है,     

पंख के नाम पर,
अक्सर मूक हो जाते है,
चाहते हुए साथ किसी का,
तन्हाइयों से चिपक जाते है,

गुस्से और हट को हम,
समझदारी का नाम देते है,
दिल जो बोले सच्चाई,
झूठ का उसको इनाम देते है,

आज़ादी की इस चाहत में,
गुलाम ही बने रहते है,
खुद को बाँधते है बेड़ियाँ,
दूजो का इल्ज़ाम कहते है |

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