Wednesday, August 6, 2014

मजबूरी


खींच-खींच के रिक्शा वो,
ना कह पाया जो ज़रूरी था,
सड़को पर सोते देखा जिसको,
वो इंसान नही मज़बूरी था,

गाड़ी धोते सब बच्चे थे,
बचपन बहता सा पानी था,
पल भर मे वो तो बड़े हुए,
बचपन ही उनका जवानी था,

जीने को रोते थे वो सब,
सांसो की जैसे नीलामी थी,
हर पल वो मौत के गले लगे,
लेकिन ना एक सलामी थी,

हर मौसम के प्रत्यक्ष थे वो,
उपहास उनका इनाम था,
सब कहते थे "बेचारे है",
ना कोई इनका भगवान था,

सब आँखे देखे भाव से,
ना आँसू पोंछे कोई इन्सा,
मजबूरी मे बस बँधी हुई,
धनवानो को है मिली ज़ुबा.   

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