हम चाहते है ऐसा समाज,
जो ग़रीब को ग़रीब ना कहे,
दूसरो के दामन मे गिरते,
जो चन्द काँटे भी ना सहे,
हम चाहते है ऐसा समाज,
जो मुज़रिमो को शांति से समझायें,
अपनी इज़्ज़त से साथ साथ,
दूसरो को भी सही रास्ता बतायें,
हम चाहते है ऐसा समाज,
जो हमको करने दे मर्ज़ी,
बस सच्चाई के पथ पर हो,
सपनो में भी ना हो फ़र्ज़ी,
हम चाहते है ऐसा समाज,
जहाँ एक आँसू भी ना हो,
अपनी तो है लाखो मज़बूरियाँ,
पर "ए" समाज़ तुम ग़लत को ग़लत ही कहो,
स्वयम् रक्षा का दायित्व कहाँ,
वो तो तेरी मजबूरी है,
एकाकीपन ही चाहूं मैं,
ख़तरो मे सुबह तो तेरी है,
हैरान हूँ मैं कुछ देख यू,
नपुंसक विचारो के रिवाज़ को,
जब खुद से बढ़ते नही कदम,
फिर क्यूँ कोसते है हम समाज़ को.
Great sir
ReplyDelete