बैठा था गुम-सुम सा वो,
कड़कती धूप की छाव मे,
खा रहा था हवाओ को बेपनाह,
भोजन के रूप मे बड़े चाव से,
एक ठेला देख के ठिठरा,
सब्ज़ियो की बहार समझ कर,
भूख से होता व्याकुल,
दुनिया को एक सभ्य समाज समझ कर,
पर कर्कश्ता का बोझ उठा ना पाया,
ऐसे शब्दो की बौछार हुई,
एक धनवान ने फिर उठाई तलवार,
ग़रीबी की लाशे दो से चार हुई,
"ए भाई" तुम ज़्यादा ना सोचो,
एक किलो आँसू ही तोल दो,
इस बढ़ते भेद भाव की गाथा को,
ज़ुबान ना सही आँखो से ही बोल दो.
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