ज़िक्र ना करो उसकी बेवफ़ाई का,
पानी भी ले गया वो तराई का,
पल पल जलते रहे याद में हम,
एक आँसू ना बहा उससे जुदाई का,
निकाल फेका मक्खी की तरह उसने,
जो बनाते थे कभी स्तंभ चारपाई का,
वादें किए ज़ालिम ने सैकड़ो हज़ार,
हल्का सा डर भी ना था खुदाई का,
ज़िंदगी बाँटने चले थे हम प्यार में,
एक पल भी ना जिया अंगड़ाई का,
इस कदर सॉफ किया था सपनो से,
इनाम मिल रहा हो जैसे सफाई का,
घुट घुट कर मर रहे थे हम 'साकी',
हुस्न मना रहा था जश्न विदाई का ||
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