Saturday, April 18, 2015

टूट चुका हूँ


टूट चुका हूँ मन से मैं,
ना तन का बोझ सहा जाए,
जब भी आस लगाई मैने,
केवल अंधेरे पाए,

अपनो ने तोड़ा मुझको,
जीवन बचपन से रूठा है,
खून भी ना छोड़ा सबने,
कुछ ऐसा मुझको लूटा है,

बस्ती है ये तन्हाई की,
जीने की आस यहाँ किसको,
है नर्क से भी बत्तर ये युग,
कहते है कलयुग हम जिसको,

यहाँ मोल नही कुछ इन्सा का,
बस कष्ट ही मिलते है हर पल,
प्यार ही करता है निश्चित,
अब कैसे तू यहाँ पल पल जल,

और नही तड़पना मुझको,
कुछ पल का आराम तो दे,
हे भगवन!, धरती के बदले,
चाहे नर्क का धाम तू दे |    

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