पल दो पल का मिलन था,
इश्क़ का शायद चलन था,
यू घुला था मैं, उसमें कुछ,
जैसे जन्मो का, वचन था,
कहीं छुपी थी, हवाओं में वो,
और बेचैन यूँ, मेरा मन था,
असमंजस से, घिरा था मैं.
किस कर्म का, सृजन था,
ढूँढने पर भी, नही मिला,
कहाँ ध्यान, कहाँ तन था,
पर थी होंठों पर मुस्कान,
एहसासों में, कुछ वजन था,
कुछ होश नही था मुझको,
उसके ख्यालों का हवन था,
रहता उसके इंतज़ार में 'साथी',
बस वो, मैं, और उपवन था||
No comments:
Post a Comment