आज भी उसी दोराहे,
में बैठा हुआ हूँ
मैं,
जिसे बारिश के वक़्त,
कभी ना छोड़ता था,
गर्मी के वक़्त निचोड़ता था,
सर्दी के वक़्त, सिकुड़ता था,
बस यूँ ही ताकता था,
जमी हुई बर्फ खिड़कियों की,
खेलते बच्चे बेफ़िक्रे से,
कही भागते से अमीर,
कहीं रुके हुए वो
ग़रीब,
मस्कुराती हुई राहें,
असमंजस में पड़े यात्री,
आख़िर चुनाव बहुत मुश्किल,
होता है राह चुनने का,
जैसे कि मुझे ही
देखो,
आज भी बैठा हूँ
मैं,
उसी दोराहे पर, जिसे,
कल भी चुन ना
पाया था,
और आज भी शायद वैसा ही हो,
लोग कहते है कि,
वक़्त बदल जाता है,
लेकिन मेरा वक़्त,
तो शायद थम गया
है,
इस दोराहे में ही
कही ||
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