Monday, May 2, 2016

पद-चिन्ह ढूंढता हूँ


पद-चिन्ह ढूंढता हूँ,
कभी घनघोर अंधेरो में,
तो कभी अंजान सवेरो में,
कभी चलते-चलते रेत में,
तो कभी मास्टर जी की बेंत में,
कभी भीगते से पल में,
कभी जलते से उस नल में,
पद-चिन्ह ढूंढता हूँ,

कभी पास थे सब,
सूरज, तारे और आकाश,
आज अपनो से ना रही आस,
ज़िंदगी की दौड़ में भयभीत,
चली रे चली, वही रीत,
ढूँढते फिरते है सब प्रीत,
पद-चिन्ह ढूंढता हूँ,

घुले तो रंग आँखो में,
मुस्कान से बिखर जाते थे,
अंधेरे में जब माँ-बाबा,
दिए से आ जाते थे,
आज भी वो आते है, पर,
बड़े होने का एहसास डुबाता है,
पद-चिन्ह ढूंढता हूँ,

माया की काया में भीगे पल,
ज़िम्मेदारियो की पत्तियाँ तोड़ते,
जिंदगी जीने की आस में,
इच्छाओ की धारा को मोड़ते,
तन्हाई को अब मज़बूरी कहते है,
सपने तो गाँव है, हम शहर में रहते है,
पद-चिन्ह ढूंढता हूँ,

मोड़ इतने आए है जीवन में,
की भूल कर भी अब वापसी नही,
दिल को बहलाते बहलाते,
फिरता रहता है मॅन मेरा, यही कही,
खुद को समझाते, शाम हो जाती है,
धूप मेरे द्वार आ, रूठकर चली जाती है,,
पद-चिन्ह ढूंढता हूँ,
पद-चिन्ह ढूंढता हूँ,
जो शायद अब जीवंत नही है,
विचार मेरे संग, सत्य कही है,
कल-कल बहता कल, आज है,
ग़लतियों का एहसास, राज़ है,
हिचकिचाहट का वृक्ष बड़ा है,
आत्मा का बोझ वैसा ही गड़ा है,
पद-चिन्ह ढूंढता हूँ, पद-चिन्ह ढूंढता हूँ || Dr DV ||

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