Monday, November 3, 2014

महफ़िल-ए-एहसास

 
राहों में चला हूँ ऐसे मैं आज, अविश्वाश के पॅलो को छोड़ आया हूँ,
लगता है ज़मीं को निराहते निहारते, मैं आस्मा से तारे तोड़ लाया हूँ,

इन अदभुद्ध अनुभूतियों को मैं आज, कैसे करूँ बयान इस ज़ुबा से,
महफ़िल--एहसास में मैं जनाब जैसे, काली परछाई निचोड़ लाया हूँ,

अनगिनत रंगो से सॅज़ी मेरी दुनिया, नवीन ढंग बनाती है हर पल,
लगता है जालिम--हया की गर्दन, बिन छुए ही मैं मरोड़ लाया हूँ,

ना आस थी दीदार--इश्क की हमको, अक्षर तो अपने मासूम से थे  ,      
लगा मुझको जब दामन जो समेटा, यादें ज़िंदगी भर की मैं जोड़ लाया हूँ  

नामुमकिन से लगते थे जो पल कभी, वो भी देख बैठे हम '-दोस्त'
कहते हैं सब फनकार यहाँ मुझको, अक्स खुदा का ज़ॅमी में मैं बेजोड़ लाया हूँ ||

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