सोचता हूँ बैठे बैठे आँगन मे,
कैसी होगी वो सुबह,
जब बन जाएगी,
हर दर्द मिटाने की दवा,
क्या तब भाईचारा प्रधान होगा,
लालच और द्वेष के परे,
क्या सब का सम्मान होगा,
होंगे घर प्रेम से हरे,
क्या तब मुखौटे उतर जाएँगे,
एक रंग मे रंग जाएगा यह समाज,
छोड़ के बदले की हर याद,
भूल जाएगा क्या सब उपहास,
क्या तब अमीर अमीर,
और ग़रीब भी अमीर ही होगा,
क्या मज़बूरी मे पिसते शरीरो का,
आज़ाद कुछ ज़मीर भी होगा,
क्या तब इल्ज़ामो की बौछारे,
सूखे मे तड़पती सी होगी,
क्या तब सलाखो की बातें,
हर इंसान को ख़टकती सी होगी,
या फिर भी वो इंसान,
दवा जमा करता रहेगा,
दूसरो को दुगने मे बेचने के लालच मे,
पाप सदा करता रहेगा |
No comments:
Post a Comment