Saturday, August 15, 2015

आज़ादी का समंदर



एक अश्क से भी जो लड़ ना सका,
क्यूँ आज़ादी वो माँगे है,
एक काँटा भी जो चुन ना सका,
क्यूँ खुशियाँ रो रो माँगे है,

जो खुद से है लाचार यहाँ,
क्यूँ आईना वो दिखाता है,
जो बन बैठा अंगार यहाँ,
क्यूँ दूजो को वो जलाता है,

खुद हारा है हालातो से,
बस राग वो गम का गाता है,
ना नाचे वो बारातो में,
वो खुशियाँ देख ना पाता है,

खुद जलता है पल पल वो ही,
पर दूजो को समझाता है,
डर डर के मरता है खुद ही,
दुनिया पर दोष जताता है,

जब एक शरीर है हम सब का,
तो सब का बल भी एक सा है,
कैसे आया ये विकार यहाँ,
की एक आँधी, एक ममता है,

बस खुद से खुशियाँ चुन लो जो,
हर दर्द वही मिट जाएगा,
जब खुद से सब अच्छे होंगे,
आज़ाद तभी कहलाएगा,

जो चाहते हो तुम दूजो से,
पहले खुद से देना सीखो,
जो तन्हा पाओ खुद को तुम,
खुशियाँ खुद ही चुनना सीखो,

इस आज़ादी के समंदर में,
खुद से ही नाव चलानी है,
शक्ति जो संभले बवंडर में,
संग संग मिलकर वो जगानी है ||

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