झंझोड़ स्व्यं को हे मानव,
कुपित भ्रान्तियो के तारे है,
अंत्येष्टी की इस नगरी में,
जीवित रावण अब सारे है,
कहते है तन से "राम राम",
मन की गंगा तो मैली है,
सत्संगी ढोंग अविकारी है,
मृत चित्त की आशा फैली है,
एक अनजाने अभिशाप से,
जीवन गाथा लिख डाली है,
सूरज के तपते ताप से,
खूनी आंधी तूने पाली है,
कृत्य तेरे सब अंतहीन,
कांटें बोए सब ये दानव,
इस शृष्टि का है अंत निकट,
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