कुछ खोई सी लगी है डगर,
कुछ अंजाना सा लगे नगर,
बढ़ती दिख रही है धुन्ध,
रुकना नही है जवाब मगर,
ना कोई दिख रहा पास है,
मन में हल्की सी आस है,
जाने कब छटे यह कोहरा,
धूप का केवल एहसास है,
शायद ऐसी ही है ज़िंदगी,
कही सफाई, कही गंदगी,
हर कोई ढूँढे है कुछ,
चाहे इश्क़, चाहे बंदगी,
आसान कहाँ है समझना,
आसान कहाँ है चमकना,
धुन्ध मिलती रहेगी, राही,
आसान कहाँ है सिमटना,
ऐसे ही प्रश्नो में खोया सा,
आँखो के नीर से धोया सा ,
वो कहे आ हक़ीक़त में,
और मैं सपनो में सोया सा |