इस शहर में, अंजान बहुत है,
कम है इंसान,मकान बहुत है,
खुद को ढूंढता हूँ मैं, फिरता,
उनको लगे, परेशान बहुत है,
बरसता सावन भी है तरसता,
ढूँढे भगवान, शैतान बहुत है,
बाँटें जो तन्हाई जी भर के,
हर दर ऐसी, दुकान बहुत है
भागते जा रहे है सब 'साथी',
अँधा होने में, शान बहुत है || Dr DV ||